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श॒श्व॒त्त॒ममी॑ळते दू॒त्या॑य ह॒विष्म॑न्तो मनु॒ष्या॑सो अ॒ग्निम् । वहि॑ष्ठै॒रश्वै॑: सु॒वृता॒ रथे॒ना दे॒वान्व॑क्षि॒ नि ष॑दे॒ह होता॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaśvattamam īḻate dūtyāya haviṣmanto manuṣyāso agnim | vahiṣṭhair aśvaiḥ suvṛtā rathenā devān vakṣi ni ṣadeha hotā ||

पद पाठ

श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । ई॒ळ॒ते॒ । दू॒त्या॑य । ह॒विष्म॑न्तः । म॒नु॒ष्या॑सः । अ॒ग्निम् । वहि॑ष्ठैः । अश्वैः॑ । सु॒ऽवृता॑ । रथे॑न । आ । दे॒वान् । व॒क्षि॒ । नि । स॒द॒ । इ॒ह । होता॑ ॥ १०.७०.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:70» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हविष्मन्तः-मनुष्यासः) मनस्वी या मननशील मनुष्य (शश्वत्तमम्-अग्निं-दूत्याय-ईळते) अति सदातन महान् परमात्मा को अपने आनन्द या ज्ञान के द्रावण करने के लिए प्रेरित करने के लिए स्तुति करते हैं (वहिष्ठैः-अश्वैः) संसारवहनकर्त्ता व्यापक गुणों से, तथा (सुवृता रथेन) उत्तम वर्तने योग्य या रमणीय मोक्ष के द्वारा (देवान्-वक्षि) जीवन्मुक्तों को तू वहन करता है (होता-इह-निषद) मेरा स्वीकार करनेवाला होकर यहाँ हृदय में विराज ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनस्वी या मननशील परमात्मा के आनन्दरस या ज्ञानरस को ग्रहण कर सकता है। जो परमात्मा की उपासना में निरत रहता है, वह मोक्ष का भागी बनता है ॥३॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (हविष्मन्तः-मनुष्यासः) मनस्विनो मननशीला वा “मनो हविः” [तै० आ० ३।६।१] मनुष्याः (शश्वत्तमम्-अग्निं दूत्याय-ईळते) सदातनं महान्तं परमात्मानं स्वानन्दस्य ज्ञानस्य वा द्रावणाय “दूतो जवतेर्वा द्रवतेर्वा” [निरु० ५।१] स्तुवन्ति (वहिष्ठैः-अश्वैः) संसारवहनकर्त्तृभिर्व्यापकगुणैः, तथा (सुवृता रथेन) सुवर्तनेन रमणीयमोक्षेण (देवान् वक्षि) जीवन्मुक्तान् वहसि (होता-इह निषद) मम स्वीकर्त्ताऽत्र हृदये विराजस्व ॥३॥